मेरे अंदर के विद्रोह का एक नाम कवि जो विरह की छटा बही यह शब्द रूप नव छवि जब लहू बहे हृदय सब सहे भावना मृत सी कोई काश ना रहे इनायत थी खुदा की जो स्याही परस्पर चलती रही मेरी लेखनी की औकात नहीं कि धन्य कर बनू बड़ा तू शीत-सी, है छाव सा मैं दीप-सा उज्ज्वल बनू तू आज आ मेरे साथ चल मैं परछाई बन, तेरा कल बनू शख्सियत तू मशहूर सी, मैं कुटज सा खिलू फिर सत्य मैं हूं रेत सा जो समुद्र क्षितिज में जा मिलू शुन्य से शुरू किया नौसिखिया मैं, काल तुम बनो पर महाकाल के द्वार पर श्रेष्ठ भक्त मैं बनू - कनिष्का मोहन